Thursday, 31 May 2012


मन, इन्द्रियां और विषय

पांच इन्द्रियाँ मन का वास स्थान कही गयी है. पांच इन्द्रियों में से मन एक समय में किसी एक इन्द्रीय के साथ अवश्य रहता ही है. यही नियम है; जो श्रीमद्भगवद्गीता व हमारे उपनिषद हमें बतलाते है. हर इन्द्रिये का अपना एक विषय है. उदाहरण के तौर पर हम चक्षु को लेते है. चक्षु एक यंत्र है जो हमें विभिन्न प्रकार के दृश्य दिखलाता है. अच्छे भी और बुरे भी. चक्षु खुले है सामने एक दृश्य है अब यदि मन चक्षुओं और दृश्य के बीच नहीं है तो हम दृश्य को देख नहीं सकते है. यही बात कानो के लिए भी सिद्ध होती है जब भी हम कुछ सुन रहे होते है तो वो मन ही होता है जिसकी मदद से हम सुन रहे होते है और सुनते हुए यदि मन कुछ क्षण के लिए भी कही ओर चला जाये तो वो सुनना बंद हो जाता है और हमें कहना पड़ता है की दुबारा कहिये मेरा मन कही और था. यानि मन से ही हम देख रहे है और मन से ही हम सुन रहे है. बिना मन के हम स्वाद, स्पर्श आदि कुछ भी महसूस नहीं कर सकते.

हम सब खाने को लेकर आम तौर पर एक वाक्य हमेशा कहते है कि आज खाने का मन नहीं है या अभी खाने का मन नहीं है. अब अगर ध्यान से इस बात पर सोच विचार करे कि खाना तो मुख से है और हाथो की मदद से खाना है मन का इस बात में क्या काम हो सकता है. परन्तु यह बात बिलकुल सच है की खा भी मन ही रहा है. साधना के मार्ग में चलते चलते जब हम मन को एकाग्र करके आत्मा तक पहुचते है और आत्मा को परमात्मा के साथ मिलाने के साधन करते है तो उस समय हम मन से ऊपर उठ जाते है यानि तब हम चेतना के उस आयाम को छू लेते है जहाँ मन का कोई ज़ोर नहीं रहता तब पांचो इन्द्रियों व मन के खेल का हम पर कोई असर नहीं होता. तब न भूख लगती है न प्यास लगती है न गर्मी और न ही सर्दी. ऐसे बहुत से योगी भारत वर्ष में हुए है जिन्होंने बहुत वर्षों तक अन्न ग्रहण नहीं किया और न ही जल ग्रहण किया क्योंकि उन्होंने मन पर काबू पा लिया था. यही खेल है यही नाटक है जिसे समझना है.

ईच्छा का दुसरा नाम मन ही है. इच्छा एक ऐसी शक्ति है जो हमारी पांचो इन्द्रियों के लिए कार्य करती है ईच्छा का दूसरा नाम कामना भी है. कामना से शारीरिक यात्रा चलती है क्योंकि कामना केवल शरीर की पूर्ति करती है लेकिन सच्चाई यह भी है कि शरीरिक यात्रा समाप्त होने से यात्रा का अंत नहीं हो जाता; यात्रा तब भी चलती रहती है. परन्तु इस यात्रा का मतलब तब समझ आता है जब हम मन कि यात्रा को पूरा कर लेते है परन्तु यह बात भी सच है कि कई जन्मो तक तो मन कि ही यात्रा चलती रहती है. आत्मा मन बुद्धि के साथ एक शरीर से दूसरे शरीर कि यात्रा करता है जो यात्रा जहां समाप्त हुई थी अगले जन्म में फिर वही से शुरू हो जाती है और तब मन फिर पूर्वाकर्मानुसार खेल की रचना कर देता है. तकनीक यह है की मन को इन्द्रियों के खेल से अलग करना है क्योंकि मन जब तक इन्द्रियों के साथ कार्ये करता रहेगा तो वो कार्य हमेशा शरीर के लिये ही होगा और हर जन्म में एक शरीर मिलता ही रहेगा.

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